घुंगरू की तरह,
बजता ही रहा हू मैं
कभी इस पग में,
कभी उस पग में
बंधता ही रहा हू मैं
कभी टूट गया, कभी तोडा गया
सौ बार मूज़े फ़िर जोडा गया
यूं ही लूट लूट के, और मित मित के
बनता ही रहा हू मैं
मई करता रहा, औरो की कही
मेरी बात मेरे, दिल ही में रही
कभी मन्दिर मी, कभी महफ़िल में
सजाता ही रहा हू मैं
अपनों में रहे, या गिरो मी
घनूगारू की जगह हैं पैरो मी
फ़िर कैसा गिला ,जग से जो मिला
सता ही रहा हू मई
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